श्राद्ध पर्व के दिनों में अपने पूर्वजों का श्राद्ध करना हमारी पुरानी परंपरा है़. ब्राह्मणों और कौवों में अपने पुरखों का रूप मान हम उन्हें श्रद्धा पूर्वक भोजन कराते हैं.
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चलिए एक परंपरा हम इस तरह निभा देते हैं मगर क्या इस परंपरा का भाव मात्र यही है कि श्राद्ध वाले दिन अपने पूर्वजों की याद में ब्राह्मणों को भोजन करा कर परंपरा को निभा दिया जाए एक लीक पीटने की तरह.
नहीं, वरन पूर्वजों के प्रति श्रद्धा तो एक सतत् प्रक्रिया है उनके जीवित होने से लेकर जब तक हम जीवित रहेंगे तब तक की, और फिर अपनी आगामी पीढ़ी को भी यहीं परंपरा pass on करने की. इस प्रथा को हम जितनी अच्छी तरह, जितना अधिक दिल की गहराइयों से निभाएंगे, हमारी पीढ़ी भी हमें उसी तरह उतना ही आदर, याद और प्यार देगी.
इस श्राद्ध प्रथा के द्वारा हम अपने बच्चों को भी जिन्होंने कि हमारे उन पूर्वजों को नहीं देखा जो उनके जन्म से पहले ही गुजर गए, उनसे भी परिचित करा देते हैं. इस तरह हर परंपरा का एक अर्थ होता है एक भाव छुपा होता है उस परंपरा के पीछे. हमें उस भाव को समझ कर ही परंपरा को निभाना चाहिए.
अपने पूर्वजों का आभार तो हमें मन ही मन सदा ही व्यक्त करना चाहिए क्योंकि हम जो कुछ भी होते हैं, उन्हीं के कारण होते हैं. हमारे अस्तित्व के रूप में हमारे पूर्वज सदा हमारे साथ रहते हैं, इसी भाव को व्यक्त करते हुए श्राद्ध पर्व पर एक कविता....
श्राद्ध पर्व |
पूर्वजों की स्मृति
याद करना
अगर फर्ज है
तो वह
मात्र कर्ज है
जिसे उतारा नहीं तो
कृतघ्न कहलाने का
भय रहता है.
बहुत फर्क है
याद करने और
याद आने में
उतना ही जितना
चौराहे पर बुत
बनवाने में
या फिर
मन मन्दिर में
देव समान
बैठाने में
पूर्वजों की स्मृति
कोई बाहर की वस्तु नहीं
वह तो वह
धीमी मीठी आंच है
जो ऊष्माती रहती है
हमारे गौरवमयी
अतीत को, और
विशेष अवसरों पर
फूट पड़ती है
लौ बन कर
जिसकी रोशनी में
परिलक्षित होता
है हमारे
पूर्वजों का अस्तित्व
और उनमें
हमारी निष्ठा व श्रद्धा
जिसकी सघनता
परिचायक है कि
हमारा वर्तमान
उज्जवल है
और हम वारिस हैं
एक गौरवमयी अतीत के
क्योंकि हम
स्मरण कर पा रहे हैं
अपने पूर्वजों को
और महसूस कर रहे हैं
उन का वरद हस्त
अपने शीश पर.
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