जीवन में कठिनाइयां किस पर नहीं पड़ती, पीड़ा सब को झेलनी पड़ती है किन्तु एक रचनाकार या कवि अपनी पीड़ा को कला या कविता में ढाल लेता है.
अपने दुःख को कविता या सृजन में बदलने की कला ही किसी भी रचनाकार की ताकत होती है जो मुसीबतों में भी उसे टूटने नहीं देती.
जीवन की विषमतायें एक रचनाकार के लिये खुराक के समान होती है जिन्हें अपने सृजन में ढ़ाल वह अपनी रचना को कालजयी बनाता है.
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यह हिंदी कविता 'कांटों का जंगल' मैंने अपने ऐसे ही अनुभवों के आधार पर लिखी है। आप भले ही कवि ना हो पर यदि कविता को समझते हो तो आपको मेरी बात में सत्यता अवश्य महसूस होगी.
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तो प्रस्तुत है..
कांटों का जंगल
ग्रीष्म की तपती दोपहर में
बेगाने पन के बियाबान में
ढूंढते हुए अपने पन की छाँव
हाँ
मैंने भोगा है
कांटो का जंगल
वो कांटें
मेरे अंतर्मन तक बिंध
मुझे लहूलुहान कर गए
मगर आश्चर्य
लहू नहीं निकला
अंतर में झांका तो
लहरा रहा था
एक हरा-भरा बाग
बाग का हर पौधा
स्वयं में
एक अनुपम रचना था
डाली डाली वाक्य दीर्घा
पत्ता पत्ता भोजपत्र था
हर डाली पर
खिले हुए थे
मुखरित शब्दों के पुष्प गुच्छ
शायद
हृदय की कोमल मिट्टी में
रोपे गए थे
उन संतापों के बीज
जिन्हें सहा था मैंने
सींचा गया था
उन अश्रु-जल कणों से
जिन्हें मैंने बहने ना दिया
डाले गए थे
उन शब्दों के उर्वरक
हर पौधे के मूल में
जो प्रतिकार स्वरूप
ह्रदय में उपजे तो, मगर
सुसंस्कारित अधरो से
बाहर ना आ सके
वरन् बदल गए
उन गरल घूँटों में
जिन्हें मैंने
शिव बन गटक लिया था
और फिर लहरा उठी
यह सृजन की पौध
और अपने अश्रु पौंछ
मैं कह उठी
हाँ मैंने भोगा है
कांटों का जंगल
यह कांटे ही तो
जिलाये रखेंगे
मेरे भीतर के
रचनाकार को
हाँ मैंने भोगा है
कांटों का जंगल.
और
निभाई है
सृजन की रस्म
हाँ
मैंने भोगा है
कांटों का जंगल.
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