कविता --
मैं चाहूं या ना चाहूं
ब्लॉग गृह-स्वामिनी पर एक और कविता....
मैं चाहूं या ना चाहूं
तुम रहोगे
सदामेरे मन में
मेरे साथ
मैं चाहूं या
ना चाहूं
जीवन में कहां
मनचाहा
मिलता है
अच्छा है मगर
जो भी
मिलता है
कभी यह
विश्वास बनकर
कभी
उच्छ्वास बनकर
तुम रहोगे
सदा
मेरे साथ
मैं चाहूं या
ना चाहूं
माना
हमारे बीच
पसर गया है
जन्मों का
अंतराल
मैं नदी
और तुम
हो गए
गिरिभाल
मगर गिरती है
पर्वत की छाती से
फूट कर
नदी में ही
जलधार
बहती
फिर साथ
मैं चाहूं या
ना चाहूं
यूं ही
बहती रहेगी
समय की धारा
बनकर
कभी लहर
कभी किनारा
तुम बहोगेे
सदा ही
मेरे साथ
मैं चाहूं या
ना चाहूं
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