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विरोधाभास.... एक दार्शनिक कविता

कवि का हृदय भी ना जाने कहाँ कहाँ कुलाँचे भरता रहता है. कभी वह दार्शनिक बन जीवन की निस्सारता और सारता पर मनन करने लगता है तो अगले ही पल जीवन उसे एक उत्सव की तरह प्रतीत होने लगता है. कभी रूदन कभी हास, कभी विश्वास कभी विश्वासघात, कभी निराशा कभी आशा सभी विरोधाभास उसके अपने है. सभी के दुख सुख उसके मन को मथते हैं. सभी की अनुभूतियों को कवि अपने मन में समेट कर कविता रचता है. इसी सच्चाई को सार्थक करती दार्शनिक भावभूमि से उपजी जीवन में नीहित विरोधाभास पर मेरी (अर्थात अन्जु अग्रवाल की) एक मौलिक दार्शनिक कविता ......

विरोधाभास


जीवन एक विरोधाभास 
रुदन सुबकता यहाँ
और गूँजता हास

आसक्ति भी है
विरक्ति भी
बन्धन भी है 
मुक्ति भी

यहाँ दुख भी है
और सच भी 
राग भी है औ
दिल में द्वेष भी
सच पूछो तो जीवन 
साधारण भी, विशेष भी
symbolic-sight-expressing-poem

जीवन है अकेला भी
संग इसके मेला भी
यह खरा सोना भी है 
और मिट्टी का ढ़ेला भी

खार भी है यहाँ
और प्यार भी है
जितना नि:सार यह 
उतना इसमें सार भी है
जितनी आस जीने की
मनुज उतना निराश भी है

जितना मान जीवन में
उतना ही तिरस्कार
जितना सशक्त यह 
उतना ही लाचार

जितना यहाँ घात
उतना ही विश्वास
जीवन एक विरोधाभास.

शायद यह विरोध ही
संघर्ष करने की शक्ति देता है
इसी के सहारे मानव
स्वयं को विश्वास में लेता है
यह विरोधाभास ही आगे
बढ़ने का सम्बल देता है.
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टिप्पणियाँ

Akanksha Varshney ने कहा…
Bht badhiya.. Ye he jeevan ki sacchhai, kahi burai toh kahi achhai😊☺️

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