अंग्रेज हमारे देश से चले गये मगर हम भारतीयों के मन से अंग्रेजियत और पश्चिमी संस्कृति के प्रति मोह नहीं गया. इसी विषय पर प्रस्तुत है एक कविता..
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आज अपनी जमीं है, अपना आसमाँ
तिरंगा प्यारा |
मगर ऐ खुदा, ढूँढते थे जो हम जो, वो
जहाँ कहाँ है, कहाँ है, कहाँ है, कहाँ
कल तलक गैर बोला करते थे यहाँ
हमारी ही जमीं पर वो उनकी जुबाँ
मगर आज हम खुद ही हैं बोलते
विदेशियों की जुबाँ क्यों अपने ही यहाँ
आज अपनी जमीं है, अपना आसमाँ
बेड़ियां खुल चुकी है पैरों की मगर
मानस के बंधन हमने खोले कहाँ
छोड़ सके कहाँ मोह अंग्रेजी का हम
बहा ले गई हमको पश्चिम की हवा
आज अपनी जमीं है, अपना आसमाँ
ताजा झोंके सी संस्कृति को भूल अपनी
भाती है हम को पश्चिम की अब अदा
डिब्बाबंद खाद्य सी बासी सोच अब अपनी
सोंधी मिट्टी गंध की अब जगह ही कहाँ
आज अपनी जमीं है, अपना आसमाँ
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