दौराहा
ब्लाग पत्रिका गृह-स्वामिनी पर काव्य के अन्तर्गत आज के मानव की मनोस्थिति को व्यक्त करती एक और कविता....
दौराहा
जिंदगी के दौराहे पर
खड़ा सोचता हूं
इधर जाऊं या
उधर जाऊं.
एक रास्ता जाता है
ईमानदारी को, मगर
भूखमरी को और
बेरोजगारी को.
दूसरे रास्ते में
बिक जाती है आत्मा,
सत्य का
हो जाता है खात्मा
जुड़ जाता है मगर
दौलत से वास्ता.
सोचता हूं खड़ा खड़ा
आज के युग में
कौन सा बेहतर है रास्ता?
फिर सोचता हूं
यह मेरा ही द्वन्द नहीं
हर किसी के भीतर
आज संघर्ष यही.
चौराहे पर खड़ा जो
भीड़ के रेले के संग
बह जाएगा,
सब कुछ पा ले
भला ही वह, पर
खुद को खो देगा,
ख़ुद में से खुद
गुम हो जाएगा.
इसलिए सोचता हूं
मुझमें अगर
मै ही नही, तो
यह दुनिया फानी है,
खोना पाना
कुछ भी तो नही
यह दौलत तो
आनी जानी है.
इसीलिये
ख़ुद को खोने ना दूँगा
सच की राह अपनाऊंगा,
चाहे अकेला रह जाऊ मैं
ख़ुद के संग
ख़ुद को तो पाऊंगा.
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