बनती बिगड़ती
आकृतियां
देखकर सोचता हूं
यह मानव का ही रूप है
बनती है मिटती है और
फिर गुम हो जाती है
हम देख नही पाते
मगर अन्य रुप में
फिर लौट आती हैं
मानव की भी यही कहानी है
इस दुनिया के लिए वह
और यह दुनिया
उसके लिए
आनी जानी है
हमें भी पता नहीं होता कि
हम कहां जाएंगे
बस उड़ते रहते हैं
भटकते से
इन धुंए की आकृतियों
की तरह
क्या हम भी यूँ ही
गुम हो जायेंगे
अज्ञानता के घेरे में
स्वयं को ना
ढूंढ़ पायेंगे
संसार के कोहरे में
धुंए की ये आकृतियां तो
जड़ हैं, मगर
हम जीवात्मायें तो
चैतन्य शक्ति हैँ
हमें कहां जाना है
हमें समझना होगा
बहुत कीमती है
यह जीवन
जीवन की डगर में
संभलना होगा
स्वयं को जो हमने
यूँ खो दिया
मानो, मानव होने का
अर्थ ही खो दिया.
काव्य में और कविताएं पढ़ें...
आकृतियां
देखकर सोचता हूं
यह मानव का ही रूप है
बनती है मिटती है और
फिर गुम हो जाती है
हम देख नही पाते
मगर अन्य रुप में
फिर लौट आती हैं
मानव की भी यही कहानी है
इस दुनिया के लिए वह
और यह दुनिया
उसके लिए
आनी जानी है
हमें भी पता नहीं होता कि
हम कहां जाएंगे
बस उड़ते रहते हैं
भटकते से
इन धुंए की आकृतियों
की तरह
क्या हम भी यूँ ही
गुम हो जायेंगे
अज्ञानता के घेरे में
स्वयं को ना
ढूंढ़ पायेंगे
संसार के कोहरे में
धुंए की ये आकृतियां तो
जड़ हैं, मगर
हम जीवात्मायें तो
चैतन्य शक्ति हैँ
हमें कहां जाना है
हमें समझना होगा
बहुत कीमती है
यह जीवन
जीवन की डगर में
संभलना होगा
स्वयं को जो हमने
यूँ खो दिया
मानो, मानव होने का
अर्थ ही खो दिया.
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