लेखक:
Anju Agarwal
जीवन को नकारात्मकता से बचाए
उम्र तथा अनुभव बढ़ने के साथ हम महसूस करने लगते है कि हमारे बुजुर्ग, शास्त्र एवं महान पुरुष जो कह गए हैं वो कितना सही है. बचपन में बच्चे कितने निर्दोष होते हैं. युवा होने के साथ उनमे संसारिकता बदती जाती है फिर प्रोड होने तक जिम्मेदारियों के निर्वहन तथा आवश्यकताओं के संपादन में बहुत कुछ गलत कार्य भी मनुष्य से हो जाते हैं. किन्तु एक नार्मल प्रोड तथा उम्र-दराज़ इंसान जब अपनी मूलभूत जिम्मेदारियो से मुक्त हो जाता है तो उसमे उसकी शुद्ध आत्मा की झलक दिखाई पड़ने लगती है. क्योंकि वह स्वयं को मुक्त अनुभव करने लगता है और उसके चित्त पर चिंताओं के आवरण कम हो जाते हैं. मैंने देखा है कि मुक्त व्यक्ति औरों के प्रति भी सहृदय हो जाता है, स्वयं को उस सत-चित्त आनंद स्वरुप आत्मा से भी जुडा महसूस करता है, प्रसन्न रहना चाहता है और अन्य लोगो को भी प्रसन्नता देना चाहता है. यही तो जीव-आत्मा की मूल विशेषता है. और सब तो संसारिकता है.
इसीलिए हम बच्चों को यह सिखाने का प्रयास करे कि अगर कोई उनके साथ ख़राब भी करता है तो यह उसकी अपनी लाचारी है. उस व्यक्ति को वह उसके मूल स्वरुप में देखने का प्रयास करे. स्वयं को बचाते हुए उस व्यक्ति के प्रति सहृदय दृष्टि-कोण अपनाए. बच्चे पहले तो ऐसी बातों को उपदेश समझेंगे लेकिन उन्हें बताया जाए कि यह उपदेश नहीं, जीवन जीने की कला है जो उनके भले के लिए ही है. जो बात प्रोड होने पर समझ आये अगर युवावस्था में ही समझ ले तो जीवन नकारात्मकता से बचाया जा सकता है.
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