एक प्रश्न नारी के व्यथित अन्तर्मन से.. एक विधवा नारी की व्यथा पर एक कहानी 'अकेली' के रूप में....
क्या नारी सदा पराधीन और शक के घेरे में ही रहेगी. कभी पिताके, कभी पति के, कभी बेटे के. क्या पढ़ लिख कर और आत्मनिर्भर होते हुए और सारे दायित्व निभाते हुए भी परवशता का एहसास ढ़ोना नारी की शाश्वत नियति बन कर रह गयी है.
एक प्रश्न नारी के व्यथित अन्तर्मन से.. एक कहानी 'अकेली' के रूप में....
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अकेली
जल्दी-जल्दी घर की तरफ कदम बढ़ाते हुए उसने सोचा, यह जीवन भी आसमान की तरह ही है. अभी-अभी सब कुछ साफ़, स्पष्ट उजला-उजला सा जीवन, फिर अचानक ही ना जाने कहाँ से विडम्बनाओं के काले-काले बादल आकर जीवन को अंधकार से ढक देते हैं. नियति कभी जीवन-पटल पर इंद्र-धनुषी रंग बिखेर देती है तो कभी मांग से सिन्दूर पोंछ, अधरों से लालिमा छीन जीवन का सम्पूर्ण लालित्य नष्ट कर आँखों को वीरानियों से भर देती है.
टप-टप बारिश की बूंदे पड़ने लगी थी जो देखते ही देखते मूसलाधार बारिश में तब्दील हो गयी. अब घर काफी दूर नहीं था मगर बिना बारिश में तर-बतर हुए तो यह दूरी पार हो नहीं सकती थी. सुबह बारिश की कोई सम्भावना नहीं थी इसलिए पास में छाता भी नहीं था.
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सड़क के किनारे एक पेड़ के नीचे खडी हो वह मूसलाधार बारिश को निहारने लगी.
आकाश में गरजती बिजली की आवाज उसमे एक डरावनी सी अनुभूति का संचार कर रही थी. उसे उस दिन की स्मृति हो आई जब उसकी खुशियों पर भी बिजली गिर उसके सौभाग्य का अंत कर गयी थी.
उस दिन भी सारी रात पानी बरसा था और उस रात की सुबह उस पर बिजली बन कर गिरी थी.
वह लगभग अड़तीस-उनतालीस वर्षीया सुन्दर, सुशिक्षित दो युवा होते बच्चों की माँ थी. दस माह पूर्व भरा- पूरा सुखी संसार था उसका. बारहवी कक्षा का छात्र होनहार बेटा, नौवी कक्षा में पढ रही प्यारी सी बिटिया और अत्यंत प्यार करने वाला पति. बहुत धनाड्य तो नहीं पर किसी बात की कोई कमी नहीं थी उनके घर में. पति बैंक में क्लर्क थे. स्वयं में सम्पूर्ण सुखी परिवार था उनका.
मगर होनी पल भर में क्या से क्या कर दे, किसे पता.
उस दिन पति बैंक से जल्दी आ गये थे. कहने लगे सिर में कुछ दर्द सा हो रहा है. कुछ हरारत सी भी लग रही है. बैठा नहीं जा रहा था इसलिए सोचा घर जा कर कुछ आराम करूंगा. उसने डाक्टर के पास जाने को कहा तो बोले, मामूली सा दर्द है. दर्द की गोली लेकर सो जाऊंगा तो ठीक हो जाएगा.
गोली लेने के बाद एक कप चाय पी कर वह सो गए थे. वह निश्चित हो घर के कार्यों में लग गयी मगर उसे क्या पता था कि यह मामूली सा दर्द ही उसे जीवन भर का दर्द दे जायेगा.
शाम को उठे तो बुखार बढ़ने लगा और सिर का दर्द भी कुछ असहनीय सा होने लगा. डाक्टर को बुलाया गया. डाक्टर ने देखा, कुछ चिंतित से दिखे पर बोले-"अभी मैं दवाई लिख देता हूँ. कल तक देखते हैं." एक इंजेक्शन लगा क्रर और दवाई लिख कर वह चले गए.
बेटे से दवाई मंगा पति को दवाई दी. पति से कुछ खाने के लिए कहा तो उनका मन ही नहीं कर रहा था. चाय तक भी नहीं ली. तब तक रात हो चुकी थी. कुछ बारिश के भी आसार दिख रहे थे.
मौसम में हलकी सी ठंडक सी महसूस हो रही थी. उसने पति को अच्छी तरह चादर उढ़ायी और उनके पास बैठ उनका सिर सहलाने लगी. दवाई के असर से दर्द कम था मगर बुखार अभी तेज था. वह लगभग सो ही से गए थे.
बेटी ने खिचड़ी बना ली थी. उसे अभी बस यही बनानी आती थी. मगर खाने का किसी का मन नहीं हो रहा था. थोड़े बहुत निवाले निगल लिए थे सबने.
बच्चों से उसने सोने को कहा और स्वयं भी पास के पलंग पर लेट गयी. मगर आँखों में नींद नहीं थी. दोपहर तक तो ठीक थे अचानक पता नहीं क्या हो गया. डाक्टर ने ऐसा कुछ कहा तो नहीं पर उसे उसे वह कुछ सशंकित से लगे थे. बाहर पानी झमा-झम बरसने लगा था. उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था . एक भय सा अनुभव हो रहा था.
सुबह पांच बजे के लगभग पति की आँख खुली. वह भी जगी हुई ही पलंग पर लेटी थी. रात बस एक-दो घंटे ही को आँख लगी होगी. बीच- बीच में उठ कर पति को देखती रही थी. बच्चे अभी सो रहे थे.बाहर पानी बरसना कम हो गया था.
उसने पति के माथे पर हाथ रखा तो बुखार हल्का था मगर माथा पसीना-पसीना हो रहा था.
उसने तौलिए से माथा पौंछा और थोडा सा पानी पिलाया. चाय के लिए पूछा तो उन्होंने उसका हाथ पकड़ अपने पास बैठा लिया. यूं तो बुखार हल्का था मगर उनके चेहरे पर छायी पीलिमा को देख वह सहम सी गयी थी पर उसने स्वयं को सयंत रख, मुख पर मुस्कराहट ला कर कहा- " अब तो बुखार कुछ हल्का है. कैसा लग रहा है?"
अपने गर्म हाथों में उसकी हथेलियाँ ले पति उसे टकटकी लगा देखने लगे जैसे उसकी हिम्मत को माप रहे हो. फिर धीरे से बोले- "एक बात कहूं, अवि? ध्यान से सुनना."
उनकी आवाज की गंभीरता से भीतर तक वह कपकंपा गयी मगर ऊपर से स्वयं को सामान्य रख उसने पति के हाथों में से अपने हाथ निकाल अपनी हथेलियों में उनकी हथेलियों को जोर से दबा लिया मानो उनके ह्रदय की बात जान अपनी हिम्मत के प्रति उन्हें आश्वस्त कर रही हो. मन ही मन दोनों एक दुसरे को हिम्मत बंधा रहे थे.
आत्मिक संबंधों का यह मूक संवाद ही प्रेम की वह चेतन श्रृंखला होती है जिन्हें अपने भावो को व्यक्त करने के लिए किन्ही शब्दों की जरूरत नहीं होती. दोनों डबडबायी आँखों से कुछ पल तक एक दूसरे की आँखों में देख एक दूसरे को सांत्वना देने की चेष्टा करते रहे.
फिर समझाने जैसी मगर बहुत क्षीण आवाज में पति कहने लगे- “अवि, मनुष्य किसी से भी अलग हो जाने पर उतना अकेला नहीं पड़ता जितना अकेला तब पड़ जाता है जब उसका अपना आत्म-विश्वास उससे दूर चला जाता है. सुख तो सब बाँट लेते हैं मगर दुःख में साथी-सहभागी व्यक्ति का आत्म-विश्वास ही होता है. इसे कभी मत खोना, अवि."
बोलते हुए उनकी आँखे अपनी बात की प्रतिक्रिया का आकलन करने के लिए अवि के मुख पर ही गड़ी रही मानो वह भी स्वयं को इस बात की तसल्ली देना चाह रहे हो कि उनके बाद उनकी पत्नी हिम्मत से काम लेगी. नियति का भास उन्हें हो चला था.
भीतर ही भीतर आती रुलाई को रोक पत्नी ने उनके होठों पर हाथ रख दिया और मुस्कराने की असफल चेष्टा करते हुए बोली-- " पता नहीं क्या अनाप-शनाप बोले जा रहे हैं. बुखार ही तो है, ठीक हो जायेगा." उसके शब्द सुन पति की आँखों से आंसुओं की बूंदे गिर उसकी हथेलियों को भिगो गयी.
वास्तव में वह सोच रही थी कि रात बुखार और दर्द तेज अवश्य था मगर किसी अनहोनी की कल्पना करने जैसी कोई बात नहीं थी मगर पति के चेहरे पर छाई वीरानी और आवाज की गंभीरता से उसके पैरों तले की जमीन सरकी जा रही थी.
अचानक उसे बच्चों का ख्याल आया जो अब जाग चुके थे और पास खड़े परिस्थिति को भांप चुके थे. दोनों ही समझदार थे. भावी विपत्ति का डर उनकी आँखों में साफ़ झलक रहा था.
पति ने आँखों के इशारे से बच्चों को पास बुलाया और दोनों के हाथों को अपने होठों पर रख डबडबाई आँखों से देखते रहे. अब उनसे बोला नहीं जा रहा था. उन्होंने फिर पत्नी की तरफ आशापूर्ण नजरो से देखा मानो बच्चों के लिए हिम्मत रखने की प्रार्थना कर रहे हो. बच्चे उनके सीने पर सिर रख पापा कह सुबकने लगे.
बेटे ने उठकर बहन को संभाल कर माँ के पास बैठाया और पापा के सर पर हाथ फेर बोला, पापा आप जरूर ठीक हो जायेंगे. माँ, पापा को अब कौनसी दवाई देनी है. चाय वगैरह ली या नहीं पापा ने. अपनी घबराहट से उबर वह अब अपनी जिम्मेदारी महसूस करने का प्रयास कर रहा था.
अपने से लिपटी रोती बेटी को अलग कर उसने पति की तरफ देखा कि चाय-दूध कुछ तो ले लो. दवाई वह कुछ देर पहले दे चुकी थी. बच्चों का मन रखने के लिए पति ने धीमी आवाज में आधा कप चाय लाने को कहा. वह उठी और चाय बना लायी. पिता को हाथ के सहारे से थोडा उठा बेटा चाय पिलाने लगा. अब तक पूरी तरह सुबह हो चुकी थी. कुछ देर पहले बिजली कड़क-कड़क कर चमक रही थी मगर अब पानी गिरना बंद था. हलके-हलके बादल थे बस आसमान में.
उसने डाक्टर को फ़ोन कर मरीज का हाल बताया और कहा आप जल्दी से जल्दी आ जाये, बहुत डर लग रहा है. डाक्टर ने जल्दी से जल्दी आने का आश्वासन दे उसे तसल्ली रखने को कहा. चाय ले कर पति आँखे मूँद लेटे हुए थे. बहुत कमजोरी महसूस हो रही थी.
सारे घर में एक सन्नाटा सा व्याप्त हो गया था. एक अनजाने से डर से कोई किसी से बात नहीं कर रहा था.
वह बेसब्री से डाक्टर का इन्तजार कर रही थी. अचानक बुखार तेज होने लगा. बेहोशी सी छाने लगी. उसने बेटे को स्वयं जा कर डाक्टर को लेने के लिए भेजा. बेटा डाक्टर को ले कर आ भी नहीं पाया था कि सब समाप्त हो गया. डाक्टर की आवश्यकता ही ना रही.
वो ही आखिरी शब्द थे उसके पति के जिन्हें उसने अपना संबल बना लिया था. 'विधवा' शब्द ने उसके साथ जुड़कर उसे लोगो की नजरों में दया का पात्र बना दिया मगर उसने कभी स्वयं को दयनीय नहीं समझा. पति की मृत्यु को विधाता की इच्छा समझ पूरी तरह से स्वयं को परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए मानसिक रूप से तैयार कर लिया.
पीड़ा का दावानल ह्रदय में उठा तो कानो में पति के शब्द गूँज गए, और आँखों में आंसू नहीं, बच्चो का भविष्य तैर गया. सारी पीड़ा को स्वयं में ही समा इस अचानक आई अँधेरी रात के लिए नए सूरज का निर्माण करने का संकल्प उसके आंसुओं को शुष्क कर गया.
मगर इस समाज की मानसिक संकीर्ण सोच को क्या कहा जाए जिसे एक विधवा को सिकुड़ी -सहमी और दयनीय अवस्था में आंसू बहाते देखते रहने की ही आदत पड़ गयी हो.
पड़ोसियों ने उसे उसे हर समय आंसू बहाते न देख अपनी सहानुभूति के द्वार बंद कर लिए किन्तु अपने-2 घरों की खिड़कियाँ खोल अपने शक की दीवारों में कैद कर लिया था.
जिस स्कूल में अब वह नौकरी कर रही थी उस स्कूल के स्तर के अनुसार उसे सलीके से वस्त्र पहन कर स्कूल जाना होता था. लोगों की नज़रें उसे अन्दर तक बेंध जाती थी मगर ऐसे में उसके पति के आखिरी शब्द ही उसे आगे बढने की प्रेरणा देते. और अब तो अपने पंद्रह वर्षीया बेटे की आँखों में तैरते प्रश्नों को देख ना जाने क्यों उसे लगने लगा था कि वह भी इन पडोसिओं में ही से एक है. पिता की असामयिक मृत्यु तथा आज भी युवा दिखने वाली माँ के वैधव्य ने शायद उसे कुछ अधिक ही जिम्मेदार बना दिया था.
पेड़ के नीचे खड़े-खड़े ही वह स्मृतियों में ऐसी उलझी कि लगभग एक घंटा कब बीत गया, पता ही नहीं चला..
अचानक स्कूटर के हॉर्न से उसकी चेतना कौंधी और वह अतीत से उबर वर्तमान में आ गयी. बारिश अब रूक गयी थी मगर इक्का-दुक्का बूंदे अभी भी पड रही थी. वह तो अच्छा था तेज बारिश के कारण सड़क पर गुजरने वाले लोगो को जल्दी थी वर्ना उसे यूं विचारो में लीन खड़ी देख लोग न जाने क्या सोचते.
यादों के झंझावात में ना जाने कब आँखों में आ गए आंसुओं को पोंछ वह चलने को तत्पर हुई तो अचानक पीछे से आवाज आई- "नमस्ते भाभी जी, घर जा रही हैं. आइये मैं छोड़ देता हूँ. बारिश हो रही है, भीग जाएँगी."
यह मिस्टर कश्यप थे, उसके पति के मित्र जिन्होंने भाग-दौड़ करके उसे एक अच्छे पब्लिक स्कूल में यह नौकरी दिलवा दी थी. पति के प्रोविडेंट फण्ड तथा पेंशन के संबंध में भी वह बहुत भाग-दौड़ कर रहे थे. इसी सिलसिले में कभी-कभी मि.कश्यप को उनके घर पर भी आना पड़ता था.
उनके आग्रह करने पर वह स्कूटर पर पीछे बैठ गयी. उन्होंने उसे घर के बाहर छोड़ दिया. घर में घुसते ही बेटे के शब्द कानों में पड़े -- "अब पापा नहीं है तो यह कश्यप यहाँ क्या करने आता है?"
उसने स्तब्ध हो बेटे की आँखों में देखा तो अपने प्रति उसकी आँखों में तैरती शक की परछाई उसके अस्तित्व को शून्य प्रायः कर गयी और उसे लगा कि आज उसके अस्तित्व के साथ-2 उसके पति उमेश के वो शब्द भी अर्थहीन हो गए हैं जो उसका संबल बने हुए थे. उसे लग रहा था कि आज वास्तव में वह एक विधवा के रूप में जिंदगी के कठोर धरातल पर अकेली खड़ी है बिलकुल अकेली.
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