लेख-
प्यार तेरी पहली नजर को सलाम
आज सुबह रेडियो पर गाना आ रहा था.....
"सोलह बरस की बाली उमर को सलाम
"सोलह बरस की बाली उमर को सलाम
मन में विचार कोंधा कि वास्तव में कच्ची उम्र के इस पहली नजर के प्यार का अस्तित्व क्या है, इसकी मान्यता क्या है?
आजकल के बच्चे बहुत कहते हैं अंग्रेजी में क्रश हो गया. शायद यह वही क्रश है. यह स्वतः ही हो जाता है इस कच्ची है उम्र में किसी को देखकर.
मैंने सोचा जब यह एक नैसर्गिक भावना है तो अपवित्र तो हो ही नहीं सकती अपने मूल रूप में. मैं मूल भावना की बात कर रही हूं उसके बाद वाले आचरण कि नहीं, यह तो संस्कारों व संगत पर निर्भर करता है.
कभी-कभी तो यह क्रश मन की गहराइयों में दबा रह जाता है खामोश अनजाने, अनछुए एहसास की तरह और ताउम्र जाने अनजाने मन को कभी भी मीठी सी कसक से भरकर गुम हो जाया करता है और दूसरे पक्ष को जिसके प्रति यह भावना होती है उसे कभी पता भी नहीं चल पाता कि किसी के ह्रदय में उसके लिए कोई कोमल भावना है.
शायद जिसके लिए यह भावना होती है उसका कोई महत्वपूर्ण पार्ट इस पहली नजर के प्यार में होता भी नहीं, वह तो मात्र उद्दीपक मात्र बनता है हमारे भीतर की इस नैसर्गिक प्रेम भावना से हमें अनुभूत कराने का.
किशोर वय में प्यार की कली हमारे हृदय में अपने नैसर्गिक सौंदर्य के साथ झूमने को आतुर रहती है मगर अनजान मासूम मन पूर्णतया इसे समझ नहीं पाता. जैसे ही कोई आकर्षण अर्थात विपरीत लिंग उसके हृदय को स्पर्श कर जाता है तो हृदय असीम आनन्द की अनुभूति करने लगता है. यदि ह्रदय की पृष्ठभूमि सुसंस्कारित है तो निर्दोष मन बस उस अनुभूति में ही डूबे रहना चाहता है, कोई विकृति वहॉ नहीं होती. मिलन की आकांक्षा भी प्रायः गौण ही होती हैै. मन बस उस मीठी आँच को महसूस करना चाहता है.
अनुभूति ही मुख्य होती है जो हमारे भीतर की प्रेम कलिका से हमारा परिचय कराती है.
पढ़ें काव्य - जैसे कोई मिल गया परिचित हमें प्रवास में
मनन करने पर मुझे लगा कि शायद यह उसी तरह से है कि जब बच्चा छोटा होता है तो माता-पिता और बुजुर्गों को घर व मंदिरों में मूर्तियों को हाथ जोड़ते देखता है तो उसे भगवान का प्रथम परिचय मिलता है. यह पहली नजर का प्यार भी बिल्कुल उस पवित्र भावना की तरह है, निर्दोष वय के मासूम हृदय की कोमल पवित्र अनुभूति. तभी तो प्रेम को पूजा और कभी खुदा भी कहा जाता है क्यों कि प्यार व ईश्वर स्थूल नहीं सूक्ष्म भाव है.
उम्र बढ़ने के साथ महसूस होता है कि ईश्वर इन मूर्तियों से परे कुछ और है. यह मूर्तियां तो केवल ईश्वर की प्रतीक मात्र है ईश्वरीय परिचय का प्रथम सोपान.
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ईश्वरत्व तो हमारे भावों में है जिन्हें हम मूर्तियों में आरोपित करते हैं.
अनुभूति ही मुख्य होती है जो हमारे भीतर की प्रेम कलिका से हमारा परिचय कराती है.
पढ़ें काव्य - जैसे कोई मिल गया परिचित हमें प्रवास में
मनन करने पर मुझे लगा कि शायद यह उसी तरह से है कि जब बच्चा छोटा होता है तो माता-पिता और बुजुर्गों को घर व मंदिरों में मूर्तियों को हाथ जोड़ते देखता है तो उसे भगवान का प्रथम परिचय मिलता है. यह पहली नजर का प्यार भी बिल्कुल उस पवित्र भावना की तरह है, निर्दोष वय के मासूम हृदय की कोमल पवित्र अनुभूति. तभी तो प्रेम को पूजा और कभी खुदा भी कहा जाता है क्यों कि प्यार व ईश्वर स्थूल नहीं सूक्ष्म भाव है.
उम्र बढ़ने के साथ महसूस होता है कि ईश्वर इन मूर्तियों से परे कुछ और है. यह मूर्तियां तो केवल ईश्वर की प्रतीक मात्र है ईश्वरीय परिचय का प्रथम सोपान.
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ईश्वरत्व तो हमारे भावों में है जिन्हें हम मूर्तियों में आरोपित करते हैं.
ईश्वर व निर्दोष प्रेम समान भाव है मेरी दृष्टि में, क्यों कि दोनों ही अलौकिक आनन्द प्रदान करते हैं. तभी तो कृष्ण- दिवानी मीरा ने कृष्ण की मूर्ति में अपनी प्रेम-भावना को आरोपित कर ईश्वरीय सम्पूर्णता को प्राप्त कर लिया.
वासनात्मक प्रेम को तो प्यार की श्रेणी में रखा ही नहीं जा सकता.
वासनात्मक प्रेम को तो प्यार की श्रेणी में रखा ही नहीं जा सकता.
प्रेम का संपूर्ण रूप तो तभी जाना जा सकता है जब समर्पण की परिभाषा को पूर्णरूपेण जान लिया जाये. यह पहली नजर का प्यार नहीं वरन् प्यार का परिपक्व रूप होता है.
एक सफल दाम्पत्य तब ही सम्भव है जब प्रेम रूपी पुष्प को उसकी त्याग, समर्पण, धैर्य, निःस्वार्थ सेवा रूपी सभी पंखुड़ियों सहित दम्पति एक दूसरे को मन ही मन अपना आराध्य मान कर अर्पित कर देते हैं. इसीलिए तो पति को परमेश्वर भी कहा गया. यद्यपि आज के परिप्रेक्ष्य में केवल पति को परमेश्वर कहना संकुचित दृष्टिकोण का परिचायक होगा. एक आदर्श दाम्पत्य में पति पत्नी दोनों का समान स्थान है तथा दोनों ही एक दूसरे के लिए परमेश्वर तथा परमेश्वरी का रूप होने चाहिए.
एक सफल दाम्पत्य तब ही सम्भव है जब प्रेम रूपी पुष्प को उसकी त्याग, समर्पण, धैर्य, निःस्वार्थ सेवा रूपी सभी पंखुड़ियों सहित दम्पति एक दूसरे को मन ही मन अपना आराध्य मान कर अर्पित कर देते हैं. इसीलिए तो पति को परमेश्वर भी कहा गया. यद्यपि आज के परिप्रेक्ष्य में केवल पति को परमेश्वर कहना संकुचित दृष्टिकोण का परिचायक होगा. एक आदर्श दाम्पत्य में पति पत्नी दोनों का समान स्थान है तथा दोनों ही एक दूसरे के लिए परमेश्वर तथा परमेश्वरी का रूप होने चाहिए.
यही है प्रेम का संपूर्ण रूप और उस पहली नजर के प्यार का पूर्ण विस्तार.काव्य रचनाएं पढें गीतों की पालकी पर
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